लावारिस लाशों के वारिस उर्फ शरीफ चाचा...

लावारिस लाशों के वारिस उर्फ शरीफ चाचा...


मोहम्मद शरीफ यानी शरीफ चाचा..शरीफ चाचा पेशे से एक साइकिल मैकेनिक हैं। लेकिन यह सिर्फ उनकी जिंदगी का आर्थिक जरिया है,न कि मकसद। फैजाबाद के खिड़की अलीबेग मोहल्ले में रहने वाले शरीफ चाचा लावारिस लाशों के वारिश हैं। ऐसी लाशें जिनका कोई वारिस नहीं होता,उसे शरीफ चाचा अपना आसरा देते हैं। वे लाशों का उनके धर्म के अनुसार अंतिम संस्कार करते हैं और इस बात को अगर आंकड़ों की जुबानी कहें तो वे पिछले 18 वर्षों में अबतक 1600 लाशों को उसकी मानवीय गरिमा दे चुके हैं। वह मानवीय गरिमा जो मानव होने के नाते हर किसी का हक है।


लेकिन शरीफ चाचा के ऐसा करने के पीछे एक बहुत ही मार्मिक कहानी भी है,जो व्यवस्था की संवेदनहीनता से उपजी है। दरअसल, शरीफ चाचा के बेटे मोहम्मद रईस किसी काम से सुल्तानपुर गये थे। जहां उनकी किसी ने हत्या कर लाश को फेंक दिया गया था। यही वह मोड़ है,जहां से शरीफ चाचा ने तय किया कि वे लावारिश लाशों को उसका मानवीय हक जरूर देंगे। वे कहते हैं कि ‘हर मनुष्य का खून एक जैसा होता है,मैं मनुष्यों के बीच खून के इस रिश्ते में आस्था रखता हूं। इसलिए मैं जब तक जिंदा हूं किसी भी मानव शरीर को कुत्तों के लिए या अस्पताल में सड़ने नहीं दूंगा’। फैजाबाद के वरिष्ठ पत्रकार सी के मिश्रा कहते हैं कि ‘शरीफ भाई के साथ जो त्रासदी हुई,उसमें सामान्यत तौर पर लोग समाज और दुनिया से नफरत करने लगते हैं,लेकिन इन्होंने इसके विपरीत राह दिखाई। लावारिस लाशों को गरिमा प्रदान करने को ही अपनी जिंदगी बना ली। क्योंकि उन्हें लगता है कि ऐसा करने से उनके बेटे की जन्नत नसीब होगी।’ वहीं लेखक व पत्रकार कृष्ण प्रताप सिंह बताते हैं कि ‘मानव सेवा का सिलसिला उस वक्त भी जारी रहा,जब अयोध्या-फैजाबाद हिंदू उग्रवाद के केंद्र के रूप में तब्दील करने की कोशिश की गई।’


शरीफ चाचा सुबह नमाज पढ़ने के बाद अपने इस काम में लग जाते हैं। वे अस्पताल में मरीजों की तीमारदारी करने के बाद मुर्दा घर और रेलवे की पटरियों पर लावारिस लाशों की खोज में निकल पड़ते हैं। चाचा के इस काम को स्थानीय लोगों का सहयोग मिलता है। ज्योति कहते हैं कि’ रात या दिन जब भी हम लोग चाचा को कोई लाश ले जाते देखते हैं अपनी गाड़ी दे देते हैं’। वहीं मौलाना फैय्याज, जो मुस्लिम लाशों का जनाजा पढ़ाते हैं, बताते हैं कि ‘चचा इन लावारिश लाशों की किसी अपने की तरह देखभाल करते हैं’। शरीफ चाचा मुस्लिम की लाश को दफनाते हैं,तो हिंदू लाशों को सरयू किनारे खुद अपने हाथों से मुखाग्नि देते हैं।


शरीफ चाचा जैसी अयोध्या की अजीम शख्सियत पर रौशनी डालने में सफल है। कुछ और पहलू भी हैं। अयोध्या की रामलीला में लंबे अरसे से हनुमान का किरदार निभाने वाले एक अफ्रीकी नागरिक,जब लंका दहन में जल गये,तब किसी ने उसकी सुध नहीं ली,तब भी शरीफ चाचा ही आगे आये और उन्होंने अफ्रीकी नागरिक की देखभाल की। श्रीरामजन्म भूमि के मुख्य पुजारी आचार्य सत्येंद्र दास बताते हैं कि ‘मानवता को प्रतिष्ठित करने में इस महान काम के लिए मोहम्मद शरीफ को तुलसी स्मारक भवन में सम्मानिक किया गया है और उनकी इज्जत हर तबके के लोग दिल से करते हैं’।


सूफी संतों की नगरी अयोध्या को उसकी वास्तविक पहचान देने की कोशिश में लगे शरीफ चाचा की बढ़ती उम्र लोगों को मायूस करती है। बौद्ध गुरू डॉ.करूणाशील पूछते हैं कि ‘शरीफ चाचा की उम्र पचहत्तर साल की है और किडनी खराब हो चुकी है,कल जब वे नहीं रहेंगे तब उनके काम को कौन आगे बढ़ाएगा ?’ शरीफ चाचा का मानवता को समर्पित यह जीवन इस बात का सबूत है। लिहाजा शरीफ चाचा एक पाठशाला हैं,जिनसे सीखने की जरूरत हर किसी को है।

लेखक - राजीव यादव

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