झांसी की वीरांगना झलकारी देवी !!

झांसी की वीरांगना झलकारी देवी !!


आज झांसी की वीरांगना झलकारी देवी इनका (जनमदिन २२ नवंबर, १८३०) विरांगना झलकारीदेवी को अभिवादन !!


वीरांगना झलकारी देवी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की सेना में महिला सेना की सेनापति थी जिसकी शक्ल राणी लक्ष्मीबाई से हुबहू मिलती थी. झलकारी के पति पूरनलाल राणी झांसी की सेना में तोपची थे. सन् १८५७ के प्रभम स्वतंत्रता संग्राम में अग्रेंजी सेना से राणी लक्ष्मीबाई के घिर जाने पर झलकारी ने बड़ी सूझ बुझ स्वामिभक्ति और राष्ट्रीयता का परिचय दिया था. निर्णायक समय में झलकारी ने हम शक्ल होने का फायदा उठाते हुए स्वयं झांसी की राणी लक्ष्मीबाई बन गयी थी और असली राणी लक्ष्मीबाई को सकुशल झांसी की सीमा से बाहर निकाल दिया था और रानी झांसी के रूप में अग्रेंजी सेना से लड़ते - लड़ते शहीद हो गयी थी. झलकारी झांसी की राणी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में, महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति थीं. वे लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं इस कारण शत्रु को धोखा देने के लिए वे रानी के वेश में भी युद्ध करती थीं. अपने अंतिम समय में भी वे रानी के वेश में युद्ध करते हुए वे अंग्रेज़ों के हाथों पकड़ी गयीं और रानी को किले से भाग निकलने का अवसर मिल गया. उन्होंने प्रथम स्वाधीनता संग्राम में झांसी की राणी के साथ ब्रिटिश सेना के विरुद्ध अद्भुत वीरता से लड़ते हुए ब्रिटिश सेना के कई हमलों को विफल किया था. यदि लक्ष्मीबाई के सेनानायकों में से एक ने उनके साथ विश्वासघात न किया होता तो झांसी का किला ब्रिटिश सेना के लिए प्राय: अभेद्य था. झलकारी की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है. भारत सरकार ने २२ जुलाई २००१ में झलकारी के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया है, उनकी प्रतिमा और एक स्मारक अजमेर, राजस्थान में निर्माणाधीन है, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उनकी एक प्रतिमा आगरा में स्थापित की गयी है, साथ ही उनके नाम से लखनऊ मे एक धर्मार्थ चिकित्सालय भी शुरु किया गया है.

 

झांसी की वीरांगना झलकारी देवी का जन्म २२ नवंबर, १८३० ई. को झांसी के बुंदेलखंड के समीप भोजला नामक गांव में हुआ था. एक निर्धन कोली परिवार मेंउनका जन्म हुआ था. वह जात दलित थीं. उनकी  माता का नाम जमुना देवी तथा पिता का नाम सदोवा सिंह था. बाल्यकाल में ही माँ की मृत्यु हो जाने के बाद उनके पिता ने उनका पोषण पुत्र की ही भाँति किया था. उन दिनों की सामाजिक परिस्थितियों और दूरस्थ गाँव में रहने के कारण झलकारी कोई औपचारिक शिक्षा या स्कूली शिक्षा तो प्राप्त नहीं कर सकी लेकिन उन्होनें खुद को एक अच्छे योद्धा के रूप में विकसित किया था. जंगलों में रहने के कारण ही झलकारी के पिता ने उसे घुड़सवारी एवं अस्त्र-शस्त्र संचालन की शिक्षा दिलवाई थी.  झलकारी बचपन से ही बहुत साहसी और दृढ़ प्रतिज्ञ थी. घर के काम के अलावा वह पशुओं के रखरखाव और जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम किया करती थी. उनकी बहादुरी का तब पता चला जब वो जंगल में अपने दोस्तों के साथ पशु चराने गई थी. जंगल में उसकी मुठभेड़ एक बाघ के साथ हो गई. जैसा कि अक्सर होता है, उनके सारे साथी भाग खड़े हुए लेकिन झलकरी ने अपनी कुल्हाड़ी से उस जानवर को मार डाला था. ऐसे ही जब एक बार जब डकैतों के एक गिरोह ने गाँव के एक व्यवसायी पर हमला किया तब झलकारी ने अपनी बहादुरी से उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया.


उनका विवाह रानी लक्ष्मीबाई की सेना के एक सैनिक पूरन कोरी से हुई. पूरन भी बहुत बहादुर था. वह रानी लक्ष्मीबाई के मुख्य द्वारा का रक्षक था. शादी के बाद गौरी पूजा के अवसर पर झलकारी गाँव की अन्य महिलाओं के साथ महारानी को सम्मान देने झांसी के किले मे गई. वहां राणी लक्ष्मीबाई उन्हें देख कर अवाक रह गई. उन दोनों की शक्लों में बहुत अधिक समानता थी. लक्ष्मीबाई, झलकारी  से खुद की सूरत देखकर प्रभावित तो थी ही लेकिन गांव की अन्य औरतों से झलकारी के किस्से सुनकर उन्होंने झलकारी को अपनी दुर्गा सेना में शामिल कर लिया. झलकारी ने यहां बंदूक चलाना, तोप चलाना और तलवारबाजी का प्रशिक्षण लिया.



झांसी के अनेक राजनैतिक घटनाक्रमों के बाद जब रानी लक्ष्मीबाई का अग्रेंजों के विरूद्ध निर्णायक युद्ध हुआ उस समय रानी की ही सेना का एक विश्वासघाती दूल्हा जू अग्रेंजी सेना से मिल गया था और झांसी के किले का ओरछा गेट का फाटक खोल दिया जब अग्रेंजी सेना झांसी के किले में कब्जा करने के लिए घुस पड़ी थी. उस समय रानी लक्ष्मीबाई को अग्रेंजी सेना से घिरता हुआ देख महिला सेना की सेनापति वीरांगना झलकारी देवी ने बलिदान और राष्ट्रभक्ति की अदभुत मिशाल पेश की थी. झलकारी की शक्ल रानी लक्ष्मीबाई से मिलती थी ही उसी सूझ बुझ और रण कौशल का परिचय देते हुए वह स्वयं रानी लक्ष्मीबाई बन गयी और असली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को सकुशल बाहर निकाल दिया और अग्रेंजी सेना से स्वयं संघर्ष करती रही. बाद में दूल्हा जी के बताने पर पता चला कि यह रानी लक्ष्मीबाई नहीं बल्कि महिला सेना की सेनापति झलकारी है जो अग्रेंजी सेना को धोखा देने के लिए रानी लक्ष्मीबाई बन कर लड़ रही है. बाद में वह शहीद हो गयी.

 


झलकारी देवी का अन्त किस प्रकार हुआ, इस बारे में इतिहासकार मौन हैं. कुछ लोगों का कहना है कि उन्हें अंग्रेजों द्वारा फाँसी दे दी गई. लेकिन कुछ का कहना है कि उनका अंग्रेजों की कैद में जीवन समाप्त हुआ. अखिल भारतीय युवा कोली राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. नरेशचन्द्र कोली के अनुसार ४ अप्रैल १८५७ को झलकारी बाई ने वीरगति प्राप्त की. वृंदावनलाल वर्मा जिन्होने पहली बार झलकारी देवी का उल्लेख उनकी “झांसी की रानी” पुस्तक में किया था उनके अनुसार रानी और झलकारी देवी  के संभ्रम का खुलासा होने के बाद ह्यु रोज़ ने झलकारी देवी  को मुक्त कर दिया था. उनके अनुसार झलकारी देवी का देहांत एक लंबी उम्र जीने के बाद हुआ था (उनके अनुसार उन्होने खुद झलकारीबाई के नाती से जानकारी ली थी). बद्री नारायण अपनी Women heroes and Dalit assertion in north India: culture, identity and politics‎ किताब में वर्मा से सहमत दिखते है.  इस किंवदंती के अनुसार जनरल ह्यूग रोज़ झलकारी का साहस और उसकी नेतृत्व क्षमता से बहुत प्रभावित हुआ, और झलकारी देवी को रिहा कर दिया था पर वो अंग्रेज जिन्होंने लाखों निर्दोष मनुष्यों और अनगिनत क्रांतिकारियों को कूर तरीकों से मारा था उनसे इस काम की आशा की ही नहीं जा सकती अतः यह केवल एक कयास मात्र है. दूसरे पक्ष के कुछ इतिहासकारों का कहना है कि उन्हें अंग्रेजों द्वारा फाँसी दे दी गई. लेकिन कुछ का कहना है कि उनका अंग्रेजों की कैद में जीवन समाप्त हुआ. अंग्रेज न्यायाधीश ने जब झलकारी को उम्रकैद का दंड दिया तो उसने अंग्रेजी न्याय की खिल्ली उड़ाते हुए तुरंत झाँसी से लौट जाने का आदेश दिया. चिढ़े हुए अंग्रेज अफसरों ने बौखलाकर तुरंत उस पर फौजी मानहानि तथा बगावत का आरोप सिद्ध किया और देशभक्त वीरांगना झलकारी देवी को तोप के मुँह से बाँधकर उड़वा दिया गया. इसके विपरीत कुछ इतिहासकार मानते हैं कि झलकारी इस युद्ध के दौरान एक गोला झलकारी को भी लगा और “जय भवानी” कहती हुई वह भूमि पर अपने गिर पड़ी. वह अपना काम कर चुकी थी और अंत में लड़ती हुई वीरगति को प्राप्त हुई. श्रीकृष्ण सरल ने  Indian revolutionaries: a comprehensive study, 1757-1961, Volume 1‎ पुस्तक में उनकी मृत्यू युद्ध के दौरानन हुई थी ऐसा वर्णन किया है. तत्कालीन इतिहासकारों ने लम्बे समय तक झलकारी बाई के योगदान को नजरअन्दाज किया, किन्तु बुन्देलखण्ड के अनेक लेखकों ने उनकी शौर्य गाथा गाई हैं. जिनमें चोखेलाल ने उनके जीवन पर एक वृहद् काव्य लिखा है और भवानी शंकर विशारद ने उनके जीवन परिचय को लिपिबद्ध किया है.
झांसी की रानी का इतिहास जब-जब लोगों के द्वारा पढा जायगा, झलकारी देवी के योगदान को लोग अवश्य याद करेंगे. इस में उत्तर प्रदेश के आगरा शहर में उनकी घोडे पर सवार मूर्ति स्थापित की गई है. लखनऊ में उनके नाम पर धर्मार्थ चिकित्सालय प्रारम्भ किया गया है. जिससे भविष्य की भारतीय समाज की अनेक पीढयाँ उनसे देश धर्म पर मर मिट जाने की प्रेरणा लेती रहेंगी. बाद में भारत सरकार के पारेट एण्ड टेलीग्राफ विभाग ने २२ जुलाई २००१ को झलकारी देवी पर डाक टिकट जारी कर उसके योगदान को स्वीकार किया है. झांसी के इतिहास कारों में अधिकतर ने वीरांगना झलकारी देवी को नियमित स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में नहीं सम्मलित किया किन्तु बुन्देली के सुप्रसिद्ध गीतकार महाकवि अवधेश ने झलकारी देवी शीर्षक से एक नाटक लिखकर वीरांगना झलकारी देवी की ऐतिहासिकता प्रमाणित की है. कौशलेन्द्र प्रताप यादव ने अपनी पुस्तक आल्हा उदल और बुंदेलखंड में झलकारी देवी के बलिदान को रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान से भी उत्कृष्ट मन है.

 


१८५७ के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम और बाद के स्वतन्त्रता आन्दोलनों में देश के अनेक वीरो और वीरांगनाओं ने अपनी कुर्बानी दी है. देश की आजादी के लिए शहीद होने वाले ऐसे अनेक वीरो और वीरांगनाओं का नाम तो स्वर्णक्षरों में अकित है किन्तु बहुत से ऐसे वीर और वीरांगनाये है जिनका नाम इतिहास में दर्ज नहीं है. तो बहुत से ऐसे भी वीर और वीरांगनाएं है जो इतिहास कारों की नजर में तो नहीं आ पाये जिससे वे इतिहास के स्वार्णिम पृष्टों में तो दर्ज होने से वंचित रह गये किन्तु उन्हें लोकमान्यता इतनी अधिक मिली कि उनकी शहादत बहुत दिनों तक गुमनाम नहीं रह सकी. ऐसे अनेक वीरो और वीरांगनाओं का स्वतन्त्रता संग्राम में दिया गया योगदान धीरे-धीरे समाज के सामने आ रहा है. और अपने शासक झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के प्राण बचाने के लिए स्वयं वीरांगना बलिदान हो जाने वाली वीरांगना झलकारी देवी ऐसी ही एक अमर शहीद वीरांगना है जिनके योगदान को जानकार लोग बहुत दिन बाद रेखाकित क र पाये है. झलकारी जैसे हजारों बलिदानी अब भी गुमनामी के अधेरे में खोये है जिनकी खोजकर स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की भी वृद्धि करने की पहली आवश्यकता है.
 


झलकारी देवी की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है. उनकी प्रतिमा और एक स्मारक अजमेर, राजस्थान में है. उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उनकी एक प्रतिमा आगरा में स्थापित की गई है. सारे पहलू में एक दुखद बाद यह है कि मुख्यधारा के इतिहासकारों द्वारा, झलकारी देवी के योगदान को बहुत विस्तार नहीं दिया गया है, लेकिन आधुनिक स्थानीय लेखकों ने उन्हें गुमनामी से उभारा है. चोखेलाल वर्मा ने उनके जीवन पर एक वृहद काव्य लिखा है. मोहनदास नैमिशराय ने उनकी जीवनी को पुस्तक का रूप दिया है. वीरांगना झलकारी देवी के इस प्रकार झांसी की रानी के प्राण बचाने अपनी मातृभुमि झांसी और राष्ट्र की रक्षा के लिए दिये गये बलिदान को स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास भले ही अपनी स्वार्णिम पृष्टों में न समेट सका हो किन्तु झांसी के लोक इतिहासकारो , कवियों , लेखकों , ने वीरांगना झलकारी देवी के स्वतंत्रता संग्राम में दिये गये योगदान को श्रृद्धा के साथ स्वीकार किया है.  भवानी शंकर विषारद ने उनके जीवन परिचय को लिपिबद्ध किया है. राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने झलकारी की बहादुरी को निम्न प्रकार पंक्तिबद्ध किया है...




जा कर रण में ललकारी थी, वह तो झाँसी की झलकारी थी...

गोरों से लड़ना सिखा गई, है इतिहास में झलक रही,

वह भारत की ही नारी थी.




त्याग और बलिदान की ऐसी मिशाल देश करने वाली वीरांगना झलकारी देवी के जन्म दिवस के अवसर पर 'प्रबोधन' परिवार की विनम्र श्रद्धान्जलि !!



संदर्भ-


http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9D%E0%A4%B2%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80_%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%88
   
 

बुंदेलखंड के गौरव बुंदेलखंड दर्शन डोट कॉम

 

1.0 1.1 "वीरांगना - झलकारी बाई" (पीएचपी). मधुमती. अभिगमन तिथि: २००९.

 

"डेटाबेस ऑफ इंडियन स्टाम्प्स" (एचटीएम). कामत पॉटपुरी. अभिगमन तिथि: २००९.

 

"ग्रेट वूमेन ऑफ इंडिया" (अँग्रेज़ी में) (एचटीएम). Dakshina Kannada Philatelic and Numismatic Association. अभिगमन तिथि: २००९.

 

"वीरांगना झलकारी बाई" (पीएचपी). भारतीय साहित्य संग्रह. अभिगमन तिथि: २००९.





लेखं संकलन- निलेश रजनी भास्कर कळसकर(प्रबोधन टीम)


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